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अपनी कहै मेरी सुनै : व्यावहारिक तथा आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में समन्वय की अत्यंत आवश्यकता है। समन्वय कहते हैं सारी बातों को लेकर एकता स्थापित करना। समन्वय के बिना सर्वत्र अहं-हीनत्व एवं विद्वेष की भावना व्याप्त है।
व्यावहारिक समन्वय
पिता-पुत्र, पति-पत्नी, गुरू-शिष्य, सास-बहू, भाई-बहन, पड़ोसी-पड़ोसी में जो कलह है, इसका कारण है - आपस में समन्वय न करना। समन्वय करने के लिए सबकी अच्छाइयों को देखना पड़ेगा। परन्तु हम तो ऐसे अधम हैं कि हर समय सबकी बुराइयों को देखते हैं।
एक दूसरे को न समझना ही कलह का कारण है। जितने मनुष्य हैं सबके स्वभावों, संस्कारों, गुण-कर्मों, शारीरिक-मानसिक स्थितियों में विभिन्नता है। इस विभिन्नता को मिटा पाना असम्भव है। ऐसी अवस्था में सबकी सारी बातें मिलाने तथा एक करने का हठ अज्ञान है और अपने ही समान दूसरे के सारे व्यवहार न देखकर भड़क जाना अत्यन्त नासमझी है। इस स्वाभाविक विभिन्नता भरे संसार में सारी बातों को एक करने का दुराग्रह असमीक्षित बुद्धी कर परिणाम है।
दो व्यक्ति दो वातावरण एवं संस्कारों में जन्में होते हैं, फिर दोनों के सारे विचार और व्यवहार सर्वथा एक कैसे हो सकते हैं! ऐसी स्थिति में दोनों की केवल सार बातों को लेकर समन्वय कर लेने के अतिरिक्त एकता के लिए अन्य क्या चारा है!
एक बंगाली, एक पंजाबी, एक उत्तरप्रदेशी तथा एक मद्रासी के विचारों-अचारों-व्यवहारों में अन्तर निश्चित है, क्योंकि देश की विभिन्नता होने के नाते विभिन्न संस्कार हैं। आज आपके लड़के अपनी पत्नी को लेकर बाजार घूमना चाहेंगे। आपको यह अच्छा नहीं लगेगा। क्योंकि आपके संस्कारों का निर्माण आज से चालीस-पचास वर्षों के पूर्व हुआ है, परन्तु आपके लड़कों के संस्कार बीस-तीस वर्षों के भीतर बने हैं। दोनों के संस्कार-निर्माणकाल में अन्तर है। एक बुद्धिस्ट, एक श्री रामकृष्ण मिशन का व्यक्ति आहार की शुद्धी पर जोर देने वाला न होगा, परन्तु एक वैष्णव, एक कबीरपंथी, एक जैन स्वाभाविक आहार की शुद्धी पर जोर देगा। पूर्व-जन्मों के संस्कार सब देहधारियों के साथ हैं, और प्रत्येक जीव में कर्म करने की स्वतंत्रता होने से अपनी-अपनी रूचियों और प्रकृतियों में भिन्नता है। ये सब निमित्त कारण हैं। इस प्रकार देश, काल और निमित्त के कारण मनुष्यों के आचार-व्यवहार, गुण-कर्मों में विभिन्नता होना निश्चित है। ऐसी स्थिति में एकता और प्रेम के लिए सार बातों को लेकर समन्वय करने के अतिरिक्त अन्य क्या चारा है!
प्रायः हर व्यक्ति यह शिकायत करता है कि हमारा पुत्र, हमारा पिता, हमारी माता, हमारी पत्नी, हमारा गुरू, हमारा शिष्य, हमारा भाई, हमारा पति, हमारी बहू, हमारी सास, हमारा पड़ोसी हमसे प्रेम नहीं करते, हमारे ऊपर स्नेह या श्रद्धा नहीं रखते। परन्तु तथ्य यह है कि ऐस कहने वाले स्वयं श्रद्धा, प्रेम और स्नेह से शून्य हैं। जो व्यक्ति श्रद्धा, प्रेम और स्नेह भाव से भरा होगा वह दूसरे से श्रद्धा, प्रेम और स्नेह पाने का भूखा क्यों होगा!
श्रद्धा, प्रेम और स्नेह - तीनों एक ही धातु के हैं। यहां शब्दशास्त्र के धातु से हमारा तात्पर्य नहीं है। हमारा तात्पर्य भावशास्त्र से है। हृदय का झुकाव एक ऐसा धातु है जो बड़ों के प्रति होने से श्रद्धा, बराबरी में होने से प्रेम तथा छोटों के प्रति होने से स्नेह कहा जाता है। श्रद्धा और स्नेह के बीच में जो यह प्रेम शब्द है बड़ा समर्थ है। यह सबके लिए पर्याप्त है। यदि हम एक शब्द से काम चलाना चाहें तो प्रेम को ले सकते हैं।