Title : ऋग्वेद
Pages : 163
File Size : 42.6 MB
Category : Religion
Language : Hindi
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ऋग्वेद के बारे में
वेद शब्द का मतलब है- 'ज्ञान'। ज्ञान वह प्रकाश स्रोत है, जिससे मानव के हृदय और बुद्धि पर छाया अंधेरा हमेशा के लिए मिट जाता है।
सृष्टि के उषाकाल में मानव के मार्गदर्शन के लिए ईश्वर ने जो ज्ञान का अलौकिक प्रकाश दिया, उसको ही हम 'वेद' कहते है। ईश्वर का ज्ञान जिन मंत्रों, श्लोकों या सूक्तियों के माध्यम से प्रकट हुआ, सामूहिक रूप से उन सभी शास्त्रों को वेद कहा जाता है।
भारतीय अध्यात्मवाद में तीन कांड सुप्रसिद्ध है - पहला 'ज्ञानकांड', दूसरा 'कर्मकांड' तथा तीसरा 'भक्तिकांड'। हिंदू धर्म के 4 वेदों में से अर्थर्ववेद का संबंध ज्ञानकांड से, सामवेद का संबंध भक्तिकांड से तथा यजुर्वेद का संबंध अनुष्ठान व कर्मकांड से है।
ऋग्वेद का संबंध विज्ञानकांड से है। 'ऋग्वेद' शब्द संस्कृत के धातु 'ऋक्' और वेद शब्द से मिलकर बना है। ऋक् धातु का मतलब है - स्तुति यानी गुण एवं गुणी का वर्णन। और जैसा की हम सभी जानते है, गुणी चीजों के वर्णन, विश्लेषण और प्रतिपादन को ही विज्ञान कहा जाता है। विज्ञान यानी किसी चीज के विशेष ज्ञान में ज्ञान, कर्म और उपासना शामिल होते हैं। इसलिए ऋग्वेद की सूक्तियों में भी ये सारी चीजें शामिल हैं।
संपूर्ण ऋग्वेद में 10,589 मंत्र हैं, जिन्हें 10028 सूक्तों के रूप में लिखकर बताया गया हैं। सूक्त का मतलब है - कहा गया बहुत सुन्दर कथन। सूक्त कई मंत्रों को मिलाकर लिखे जाते हैं, जिनमें किसी बात का वर्णन बहुत सुन्दर ढंग से किया गया होता है।
ऋग्वेद के मंत्रों का वर्गीकरण
ऋग्वेद की व्याख्या या टीका करने वाले पंडितों ने ऋग्वेद के मंत्रों का वर्गीकरण अष्टकों, कांडों के अनुसार किया है लेकिन ऊपर डाउनलोड करने के लिए दिये गए पुस्तक में लेखक ने ऋग्वेद का वर्गीकरण अध्यायों के अनुसार किया हैं। पूरे ऋग्वेद में कुल 10 अध्याय हैं।
वेद के विभिन्न अंग और उपांग
हिंदू धर्म के चारों वेदों के शिक्षा, कल्प, निरूक्त, व्याकरण, छंद, व्याकरण और ज्योतिष 6 अंग हैं और सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा और वेदांत ये 6 उपांग हैं। इन छह अंग और उपांगों को ही दर्शन किया जाता है। श्रुति धर्मग्रन्थ उपनिषद भी वेदों के ज्ञान का विस्तार ही हैं। महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास पुराणों के रचयिता हैं। महर्षि वेदव्यास का नाम 'व्यास' भी इसीलिए पड़ा क्योंकि उन्होंने वेदों के ज्ञान कि व्याख्या की थी।
यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और ऋग्वेद स्तुति यानी प्रशंसा प्रधान ग्रन्थ हैं। ऋग्वेद में अग्नि, इन्द्र, वरूण आदि देवताओं की प्रशंसा और स्तुति कि गई हैं और इसमें देवताओं को परमात्मा प्रतिरूप माना गया हैं।
ऋग्वेद में देवताओं के स्तुतियों के अलावा जीव और प्रकृति, ज्ञान और विज्ञान तथा इस संसार के विभिन्न पदार्थों का उल्लेख है। इस वेद के विवरणों में उस समय की पूरी तरह विकसित आर्य लोगों की राती-रिवाजों, सामाजिक नियमों एवं व्यवहारों का पता भी चलता है। चोरी, धोखा एवं विश्वासघात जैसे कई अपराधों और मनुष्य के दोषों का वर्णन भी इस ग्रंथ में हैं।
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केवल पढ़ने के लिए: घर का स्वामी, समाज का मालिक, गुरू या महनत सहनशील बनकर ही अनुयायियों को सन्मार्ग में लगाये रख सकते हैं।
असहनशील स्वामी या गुरू परिवार या समाज को नहीं चला सकता। यही बात अधीनस्थ सदस्यों पर भी है। वे भी यदि सहनशील न हों तो परिवार या समाज में न निभ सकते हैं और न कोई उन्नति कर सकते हैं। जिस परिवार या समाज में आपस में कटाकटी चलती है, वह शीघ्र नष्ट हो जाता है। समाज का कोई सदस्य गड़बड़ हो तो केवल वही गिरेगा, किन्तु यदि मालिक या गुरू गड़बड़ तथा असहनशील हो तो समाज बिखर जायेगा। यदि स्वामी या गुरू ठीक है, तो समाज व्यवस्थित रहेगा।
विनम्रता
केवल अधीनस्थ सदस्यों में ही विनम्रता चाहिए, ऐसी बात नहीं है, किन्तु परिवार एवं समाज के स्वामी एवं गुरू में भी विनम्रता की महान आवश्यकता है। स्वामी एवं गुरू को तो अधिक विनम्र होना चाहिए। विनम्र होकर ही वह साथियों को सम्हाल पायेगा। अहंकारी एवं अकड़बाज स्वामी या गुरू अनुगामियों को क्षुब्ध बनाकर उनसे कट जाता है। जो जितने ही ऊंचे पद पर हो, उसे उतना ही मन से विनम्र होना चाहिए, तभी वह किसी समूह को अनुशासित कर सकता है।
स्वार्थ-त्याग एवं क्षमावृत्ति
अपने मन के स्वार्थ को जीतकर ही अनुगामियों की रक्षा की जा सकती है। साथियों के मन तथा शरीर की रक्षा करना स्वामी का कर्तव्य है। स्वामी या गुरू को चाहिए कि वह अनुगामियों को मानसिक सन्तोष दे तथा उनकी शारीरिक व्याधि में उनके साथ सहानुभूति एवं उनकी यथाशक्ति चिकित्सा एवं सेवा का प्रबन्ध करे।
सद्गुणों की चर्चा, सत्योपदेश तथा रचनात्मक दिशा में प्ररेणा देकर ही अनुगामियों को मानसिक सन्तोष दिया जा सकता है। अपने अनुगामियों की हर प्रकार से रक्षा करना स्वामी या गुरू का कर्तव्य है।
स्नेहभाव
स्वामी या गुरू को मां की तरह स्नेहहृदय होना चाहिए। स्वामी एवं गुरू के मीठे वचन, कोमल व्यवहार एवं स्नेह भरा हृदय अनुगामियों के दिल को जीत लेते हैं। इनके बिना स्वामी या गुरू समाज-उन्नति में असफल होता है। स्नेह व्यवहार से ही जीवन, परिवार तथा समाज में स्वर्ग उतरता है।
समन्वय दृष्टि
साथियों की गलत बातों को हटाकर तथा उनकी ठीक-ठीक बातों को लेकर एकता स्थापित करना समन्वय है। जहां चार बरतन हैं, वहां जरूर कुछ आवाज हो जायेगी। उन्हें सम्हालकर रखना समझदार का काम है। इसी प्रकार परिवार एवं समाज में जब दस आदमी हैं, तब उनमें स्वभावों, रुचियों, आदतों एवं योग्यताओं की भिन्नता होगी ही। सबमें कुछ-न-कुछ कमजोरियां होती हैं। स्वामी एवं गुरू का कर्तव्य है कि अपनी विशाल एवं समन्वयात्मक दृष्टि से सबको सम्हालकर उन्हें रचनात्मक दिशा दे। समन्वय करके ही व्यवहार पवित्र बनाया जा सकता है।
परिवार एवं समाज सुधार
गृहस्थ के लिए परिवार और साधु के लिए संत-समाज उनके लोक हैं। यदि परिवार में परस्पर प्रेम, करूणा, दया, श्रद्धा, आदर, समता, शील, त्याग, सद्भावना का व्यवहार है, तो वह स्वर्ग और यदि ईष्र्या, घृणा, वैमनस्य, कलह, स्वार्थपरता, बुरी भावनाओं तथा बुरे व्यवहार का बाजार है तो वह नरक है। यही बात समाज के लिए भी है। इस प्रकार अपने लिए स्वर्गलोक या नरकलोक का निर्माण करना मनुष्य का अपना स्वतन्त्र अधिकार है।