वैदिक ऋषि महर्षि कश्यप के बेटे और पक्षी नरेश गरुड़ को विष्णु भगवान का यातायात का साधन कहा जाता है। एक बार पक्षी नरेश गरुड़ ने विष्णु जी से मरने के पश्चात जीवों की स्थिति, प्राणियों की स्वर्ग और नरक यात्रा, विभिन्न बुरे कामों से जीव को मिलने वाले योनियों एवं पाप करने वालों की बुरी स्थिति से जुड़े कई रहस्य से भरे प्रश्न किये। उस वक्त विष्णु जी ने गरुड़ को जो उत्तर उपदेश के रूप में सुनाये, वही उपदेश इस पुराण में है।। इस पुराण में उन्हीं उपदेशों की विस्तार से विवेचना की गई हैं -
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पक्षीराज के कहने पर ही विष्णु जी के मुख से मरने के बाद के रहस्यों एवं जनकल्याणकारी बातों का रहस्य उद्घाटित हुआ था, इस कारण से इस पुराण को यह नाम मिला है। भगवान विष्णु के मुख से निकला यह पुराण वास्तव में वैष्णव पुराण है। इस पुराण को गारूड़ी विद्या का भंडार माना जाता है।
सबसे पहले इसका ज्ञान ब्रह्माजी ने महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास को बताया था। उसके बाद वेदव्यास जी ने अपने अध्येता सूतजी को और बाद में श्री सूतजी ने अन्य ऋषियों को दिया था।
हिन्दू धर्म में मरने के बाद ध्यान लगाकर गरुड़ पुराण सुनने या पढ़ने का नियम है। इस कल्याणकारी पुराण के एक भाग में 'प्रेतकल्प' के बारे में बताया गया है। प्रेतकल्प को सद्गति प्राप्त करने के लिए पढ़ा जाता है। इसके अलावा इसमें श्राद्ध-तर्पण, मुक्ति प्राप्त करने के उपायों एवं प्राणियों को प्राप्त होने वाली विभिन्न गतियों के बारे में बताया गया हैं।
इस पुराण में श्लोकों की संख्या और खंड
संपूर्ण पुराण में 19,000 से अधिक श्लोक हैं, लेकिन वर्तमान में इसके लगभग 8000 श्लोक ही मौजूद हैं। संपूर्ण पुराण के दो भाग है - पूर्व खंड और उत्तर खंड। पूर्व खंड में लगभग 240-243 अध्याय हैं वही उत्तर खंड में केवल 34-49 अध्याय ही हैं। इसके उत्तर खंड को प्रायः प्रेतकल्प के नाम से जाना जाता है। इसके अध्यायों की शुरुआत
विष्णु जी के 24 अवतारों के सारगर्भित वर्णन से की गई है। इसके बाद अन्य पुराणों की तरह इसमें भी सूर्यवंश और चंद्रवंश के बारे में बताते हुए अनेक महान राजाओं का वर्णन किया गया है।
सनातनधर्मी आज के जीवन की दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिती के बीच से गुजर रहे हैं। हमारे धर्म के बहुत से नैतिक मूल्य खत्म होते जा रहे हैं। आज आधुनिक ज्ञान के दिखावे में पश्चिमी विचारों का असर हमारे ऊपर अत्यधिक हो रहा हैं इसलिए एक लड़ाई हमें अपनी मानसिकता से भी लड़नी होगी, जिससे जो हमारी सनातन परंपराएँ ग्रहण करने योग्य और मूल्यपरक है उस पर पुनः लौट सके।
मानव का मन बहुत ही विचित्र है तथा मन के उस अनोखेपन में विश्वास और विश्वास का द्वंद भी हमेशा बना रहता है। हमेशा द्वंद और हमेशा द्वंद से मुक्ति की कोशिश मानव की संस्कृति की उन्नति की मूल बुनियाद है और हमारे पुराण हमें यही बुनियाद प्रदान करते है।