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अन्य लोगों की त्रुटियां देखने तथा कहने का अर्थ उनका पूर्ण रूप से सुधार तो होता नहीं है, बल्कि उन्हें निम्न दिखाकर स्वयं को उससे बड़ा एवं श्रेष्ठ प्रदर्शित करने की कलुषित भावना होती है। परंतु इस कायदे से कोई बड़ा नहीं बन सकता। दूसरों की अनादर देखने और कहने वाला तो अपनी आध्यात्मिक शक्ति खोता है। उसकी रहनी गिरती है। आदमी श्रेष्ठ तो तब बनता है, जब अन्य लोगों में अच्छाई देखते हुए निरंतर अपनी बुराइयों को देखता तथा उन्हें निकालता है। साधक एवं अच्छे आदमी को तो दूसरों की बुराई देखते की फुरसत ही नहीं रहती। अगर आप मां दुर्गा की चालीसा पढ़ना चाहते है तो यहां जाए-
मां दुर्गा की संपूर्ण चालीसा पीडीएफ में
अन्य लोगों की बुराइयों को देखने, सुनने, सोचने, कहने आदि से अपने मन, वाणी, कर्म गंदे होते हैं। इसका अपने ऊपर ही मस्तिष्क को खराब करने वाला बेकार मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है। अतएव साधक तथा सामान्य मनुष्य को भी चाहिए कि परदोष दर्शन एवं परदोष कथन से अपने आपको सर्वथा बचाये रखे।
जो अपने आपको पूर्ण पवित्र कर लेना चाहता है, जो अपने आपका सर्वतोभात्या उद्धार कर लेना चाहता है, वह निरंतर अपने स्वभाव को देखता है। उसे शोध कर उसके विकारों को निकालता है। उसे अवकाश ही कहां है कि वह दूसरे के गुण-दोषों के अन्वय में पड़कर अपने वक्त जैसे बहुमूल्य चीज को बर्बाद करें।
वक्त बड़ा बहुमूल्य एवं कीमती है और वह बड़े जोरों से भागा जा रहा है। अतएव हमें एक-एक क्षण आत्मशोधन में लगाना चाहिए। जब हम अन्य लोगों की निंदा में, अन्य लोगों की बुराइयों को उभारने में, विवाद तथा झगड़ा करने में अपने समय और शक्ति को बेकार ही बर्बाद करते है तब निश्चित ही हम अपने आप में असावधान होते हैं।
आदमी का संस्कार ही उसकी अहम कमाई है। आदमी के जीवन का एक-एक काम उसके संस्कारों के भवन को बनाता है। यदि हमारे मन, वाणी तथा इन्द्रियों की क्रियाएं दूषित हैं तो वे बुरे ही संस्कार बनायेंगी, और ये गंदे संस्कार ही हमारे व्यक्तित्व को कुरूप कर देंगे।
दुनिया के महान साधकों पर ध्यान दो, वह चाहे बुद्ध और महावीर रहे हों या ईसा तथा कबीर अथवा ज्ञानदेव या अन्य, उन्होंने आत्मशोधन में ही अपने एक-एक क्षण का दोहन किया है। कबीर साहेब ने दूसरों के हित एवं सुधार के लिए ही उन्हें समय पर मीठी तथा समय पर खरी-खोटी कही है। साधना की दृष्टि से वे आत्मशोधक ही थे। उनकी सहनशीलता तो उनकी साखियों से और स्पष्ट हो जाती है कि वे अपने निन्दकों से भी नहीं उलझते थे प्रत्युत उनसे प्यार एवं स्नेह करते थे।
हमारे मन से परदोष दर्शन तथा हमारे मुख से परनिन्दा न हो, इस भावना को लेकर कितने ही साधक बहुत कम बोलते हैं और कितने साधक तो मौन हो जाते हैं। वाक्य-संयम तो हर साधक को रखना चाहिए। जो मितभाषी नहीं है वह साधक नहीं है।
कितने साधक प्रतिकूलता से डरते हैं। एक नये नौजवान युवक ने कहा, "साहेब! मैं साधु बनकर आपकी शरण में रहना चाहता हूं। परन्तु एक स्व इच्छा है कि मुझे आप सदैव अपने साथ ही रखिये। यदि आप मुझे संत-समाज में छोड़ दिये तो हो सकता है कि संतजन हमारे साथ सुन्दर व्यवहार न कर पायें।"
उस नौजवान से कहा गया कि बेटा, तुम अपने गृहस्थी के कामकाज में लगे रहो। तुम साधु-मार्ग में आने योग्य नहीं हो। जो लोग घर परिवार में रहकर सबकी बातें सहते हैं, परंतु संतों की नहीं सहना चाहते, वे क्या साधक होंगे! जो पहले से अपने इच्छानुसार गुरू को चलाना चाहता है वह क्या गुरुभक्त होगा तथा साधक होगा!