श्री शनि देव वर्तमान युग में क्रियाशील एवं जाग्रत हैं। एक ये ही ऐसे ग्रह देवता है जो सिर्फ स्वयं की ही नहीं, बल्कि दूसरे ग्रह-नक्षत्रों के कारण होने वाले कष्टों को भी समाप्त करते हैं। जो व्यक्ति शनि साढ़ेसाती या शनि की अनिष्टकारी दशा में अनेक कर्मों के दुख सह रहे हैं; मेरा विश्वास है कि उन्हें
Shiv Chalisa के साथ-साथ शनि चालीसा का पाठ नित्य पढ़ना चाहिए। श्री शनि भगवान का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए Shri Shani Chalisa in Hindi PDF यहां से को डाउनलोड करें-
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Shri Shani Bhagwan से शीघ्र खुश एवं प्रफुल्लित होने वाले और अन्य कोई देवता नहीं है। अपनी श्रद्धा के अनुसार लीन होकर उनकी चालीसा को पवित्र मन से पढ़ा जाए, उसी से वे तुरंत हर्षित होकर पुरुषार्थ के 4 साधन - धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करते हैं।
श्री शनि देव चालीसा | Shri Shani Chalisa Hindi Lyrics
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अच्छी बातें (केवल पढ़ने के लिए) : गंदे एवं जासूसी उपन्यास, नाटक, विषय उत्तेजक पत्र-पत्रिकाएं एवं इस प्रकार के अन्य साहित्य बच्चों के जीवन को रद्द करके रख देते हैं। सिनेमा, टी.वी. तथा गन्दे साहित्य से आजकल युवकों का बड़ा पतन हो रहा है।
व्यवहार, नीति, इतिहास, भूगोल, विज्ञान, गणित, दर्शन, धर्म आदि पर लिखे गये साहित्य को विशेष रूप से अध्ययन करना चाहिए। इससे बालक-बालिकाओं में उत्तम चरित्र का आविर्भाव होगा तथा उनके ज्ञान-विज्ञान बढ़ेंगे।
हमारे श्रद्धेय पूर्वजों ने ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास इन चार आश्रमों की बड़ी मधुर व्याख्या की थी। घर के बच्चे गुरूकुलों में भेज दिये जाते थे। वे वहां कम-से-कम पीचस वर्ष की अवस्था तक शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन कर विद्याध्ययन करते थे। विद्याध्ययन के पश्चात जिनमें उसी अवस्था में मुमुक्षा उत्पन्न हो जाती थी वे वहीं से ही आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ले लेते थे; और जिनकी ऐसी दृष्टि नहीं होती थी वे योग्य कन्या से विवाहकर गृहस्थी जीवन में प्रवेश करते थे।
गृहस्थी जीवन के कर्तव्य-विधान का पूर्ण अध्ययन कर अपनी पूर्ण युवावस्था को प्राप्त होकर गृहस्थी में प्रवेश करने से वे गृहस्थी का वास्तविक निर्माण करते थे। उनका गार्हस्थ जीवन शास्त्रोक्त रीति से आचरित होने से धर्म से पूर्ण होता था। गृहस्थी में रहते-रहते ही वे अपने अंतःकरण को काफी शुद्ध कर लेते थे; और कुछ ही दिनों में उनकी विषयों से घृणा हो जाती थी तथा वे गृहस्थी का परित्याग करके तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार करके पुनः शुद्ध ब्रह्मचर्य का विनियोग करते हुए इन्द्रिय मन को स्ववश करने की चेष्टा में तत्पर हो जाते थे।
जब पुनः ब्रह्मचर्य की परिपक्वता तथा इन्द्रिय-मन की पूर्ण स्ववशता हो जाती थी और अहंग्रन्थि, कर्मग्रन्थि तथा संशयग्रन्थि को बहुत कुछ तोड़कर वैराग्य की प्रबलता कर लेते थे, तब वे संन्यस्त (सर्वत्यागी) हो जाते थे और देहाभिमान को त्याग कर आत्मज्ञान की मस्ती में विहरते थे।
इस प्रकार के चार पुरूषार्थ - अर्थ, धर्म, काम तथा मोक्ष के कार्य-फल (result) की प्राप्ति के लिए वे क्रमिक विकास करते थे। उनके जीवन का केवल एक भाग विषय-भोग में जाता था, वह भी मर्यादापूर्ण तथा गृहस्थी धर्मानुकूल; शेष जीवन के तीन भाग ब्रह्मचर्य एवं त्याग-वैराग्य में जाते थे। इसलिए वे भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों स्थितियों में बहुत आगे बढ़ चुके थे।