यह परम पावन, भूतभावन, चन्द्रचूड शिवजी का स्तोत्र संस्कृत व्याख्या, भाषा छन्द और हिन्दी टीका सहित आपके विनोदार्थ प्रस्तुत है। यह वही स्तोत्र है कि, रावण ने जिसको रचकर और वारंवार जटाजूटधारी, कामारि, त्रिपुरारी,
भोलानाथ शिवजी को सुनाकर अनुपम फल पाया था, अतएव इसकी उत्तमता स्वयं प्रकट है। यह जैसा दिव्य है तथा इसे पाठ करने में जो आनंद आता है, वैसा ही यह अमोघ फल का दाता है और जैसा क्लिष्ट है, वह भी विदित ही है -
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आशा है, महादेव जी के भक्तजन इस शिव ताण्डव स्तोत्र को पढ़कर धर्म और मोक्ष के भागी होंगे।
शक्तिशाली शिव स्तोत्र का भाषार्थ
जो शिवजी जटा रूपी वन से गिरती हुई ऐसी गंगाजी के जल प्रवाह से पवित्र कण्ठ में लटकती हुई बड़े-बड़े सांपों के मनको को धारण करके और डमड्-डमड् शब्द वाले डमरू को बजाते हुए ताण्डव (नृत्य) करते हैं, वे भोलानाथ हमारा भलाई करें ||1||
जटा ही मानो कटाह (कराह) है, उसमें अधिक वेग से घूमती हुई जो निलिम्पनिर्झरी कहिये देवागंना हैं, उनकी चंचल तरंगरूपी लता जिनके मस्तक में विराजमान हो रही हैं और जिनके ललाट में धक्-धक्-धक् इत्यादि शब्द करती हुई अग्नि जाज्वल्यमान हो रही है, ऐसे द्वितीया के चंद्रमा को शिर पर प्रतिधारण करने वाले शंकरजी में मेरी प्रीति क्षण-क्षण में हो ||2|| पढ़े-
Sampurna Shiv Mahimna Stotra (PDF)
हिमाचलनन्दिनी श्री पार्वतीजी के साथ सुंदर विलास करनेवाले वे जिनके कटाक्षों से जिनका मन प्रसन्न हो रहा है और स्व्यं के कृपा कटाक्ष से निज भक्तों का जिन्हों ने दुःख दूर किया है, ऐसे किसी दिगम्बर सदाशिवजी में मेरा मन आनंद व रसिक्ता को प्राप्त हो ||3||
जटाओं में शोभायमान सर्पों के पीले और चमकते हुए फणों की मणिरूपी कुंकुम से दिशारूपी स्त्रियों के मुखों को लिप्त करनेवाले और मद से अंधे गजासुर के चर्म के ओढने से शोभित ऐसे प्राणिमात्र के रक्षक सदाशिवजी में मेरा मन अनोखे आनंद को प्राप्त हो ||4||
स्वयं मस्तकरूपी आंगन में जलती हुई अग्नि की चिन्गारी से कामदेव को समाप्त करने वाले तथा ब्रह्मादि देवों से अभिवादन किये गये और अमृतरूप किरणों वाले चन्द्रमा की रेखा से जिनका मस्तक शोभायमान व अलंकृत हो रहा है, वे कपाल को प्रतिधारण किये और उनके जटाजूट में मां गंगा शोभायमान है, ऐसे तेजरूप सदाशिवजी हमें धर्म आदि संपत्ति दें ||5|| पढ़े-
महादेव शिवजी की आरती (PDF)
इन्द्र आदि देवताओं के मुकुट में गुंफित पुष्पमालाओं के पराग से जिनके चरण धरने की भूमि धूसर रंग की हो रही है और सर्पराज की माला से जिन्होंने जटाजूट बांधी है और जिनके ललाट पर चंद्रमा तेजस्वी हैं, ऐसे शंकर हमें बहुत काल तक धर्म आदि चतुवर्ग दें ||6||
अपने कराल विशाल भाल में धक्-धक् शब्द से लहकती हुई अग्नि में उग्र कामदेव को समाप्त करनेवाले और हिमालय पर्वत की आत्मजा पार्वती के कुचों के अग्रभागों में रंग से चित्रकारी करने में एक चतुर चितेरे, ऐसे तीन नेत्र वाले शंकर में मेरी प्रीति हो ||7||
नवीन मेघों के मण्डल के कारण कठिनता से पार जाने के योग्य और चमकते हुए ऐसे अमावस्या के अधंकार के समान कण्ठवाले, देवगंगा को ललाट पर धारण किये, मृगचर्म लपेटने से तेजस्वी व शोभायमान, चन्द्रमा को प्रतिधारण करने से परम सुन्दर ऐसे जगत् के भार को प्रतिधारण करनेवाले शंकर हमारी संपत्ति को बढावें ||8||
पूरी तरह खिले और पुष्पीत हुए नीलकमल के विस्तार की श्याम की प्रभा के समान कण्ठ की सुन्दर कांति से शोभित ग्रीवावाले, कामदेव को समाप्त करनेवाले, पुरदैत्य के नाशक, संसार के भय को काटनेवाले, दक्ष के यक्ष को विनाश करनेवाले और गजासुर और अंधकासुर के नाशक, ऐसे शंकर को सदा भजता हूं ||9||
संपूर्ण मंगलों की देनेवाली ऐसी चौसठ कला और चतुर्दश विद्यारूपी कदम्बवृक्ष की मंजरी के रसप्रवाह की मधुरता चाखने में भ्रमररूप अर्थात सब विद्याओं और शास्त्रों के ज्ञाता और कामदेव, त्रिपुरासुर, संसार, दक्षयक्ष, गजासुर और यमराज इन सब के नाश करनेवाले, ऐसे शंकर को मैं भजता हूं ||10||
जिनके भयंकर ललाट में अत्यंत वेग से घूमते हुए सर्पों के श्वास निकलने के समान अग्नि प्रकाशमान हो रही है और धिमि-धिमि इत्यादि शब्द करते हुए मृदंग की बड़ी ऊंची मंगल ध्वनि के अनुसार (तांडव) नृत्य का आरंभ करनेवाले सदाशिव सब देवताओं के शिरोमणि हैं ||11||
पाषाण और विचित्र शय्या में, सर्प और मोतियों और मुक्ताफलों के हार में, अमूल्य रत्न और मिट्टी की शिलाओं व ढेलों में, सहायक और शत्रु में, तृण और कमलसमान नेत्रवाली स्त्री में और प्रजा और पृथ्वीमण्डल के राजा में समान दृष्टि करके अर्थात इनमें भेद न समझकर मैं शंकर को कब भजूंगा ||12||
देवगंगा के तीर पर लताभवन के भीतर निवास करता (abide) हुआ, सिर पर अंजलि बांधता हुआ, सदा दुष्ट प्रकृति को त्याग करता हुआ और अत्यन्त चंचल नेत्रवाली स्त्रियों में जो रत्नरूप पार्वतीजी हैं, उनके ललाट में लिखे हुए शिव-शिव इस मंत्र व सम्मोहन का प्रतिपादन करता हुआ, मैं कब सुखी, आनंदित एवं मगन होऊंगा ||13||
इंद्र की अप्सराओं के शिरों में जो गुंथे हुए मल्लिका के पुष्पों के गुच्छे हैं, उनसे अधिक गिरते हुए परागों की गर्मी से निकले हुए पसीने के कारण सुन्दर और परमशोभा का स्थान ऐसा शिवजी के शरीर की कांतियों का समूह हमारे हर्ष एवं आनंदोल्लास को बढाने वाली चित्त की प्रसन्नता को रात्रिदिन बढावें। ||14||
बड़ी प्रचण्ड समुद्र की अग्नि के समरूप प्रकाशित जो अमंगल हैं, अणिमा आदि जो आठ सिद्धियां हैं उनके साथ मिलकर स्त्रियों ने जिसमें मंगलसूचक भजन गाये है और शिव शिव इस मंत्र ही की जिसमें शोभा है, ऐसी मुक्तस्वभाव तथा सुन्दर नेत्रवाली पार्वतीजी के ब्याह की ध्वनि संसार की जय करे ||15||
जो मनुष्य पूजा-पाठ आदि के अंत में इस रावण के बनाये हुए स्तोत्र का पाठ मन लगाकर करता है, उसको महादेवजी हाथी, घोड़े इनके सहित स्थिर लक्ष्मी देते हैं।