मित्रों, गर्भ गीता कोई अलग ग्रन्थ नहीं है बल्कि इसका निर्माण Geeta in Hindi के महत्वपूर्ण अंशों से ही हुआ है। माना जाता है कि सरल शब्दों में श्रीमद्भगवद्गीता का निचोड़ गर्भ गीता में दिया गया है। गर्भ गीता का सही तरीके से पाठ हमें भव बंधन से छुड़ाकार मुक्ति का मार्ग दिखाता है। नीचे बड़े ही सरल शब्दों में संपूर्ण Garbh Geeta PDF in Hindi का पाठ डाउनलोड करने के लिए दिया गया है।
Garbh Geeta PDF | गर्भ गीता
अगर आप गर्भ गीता के साथ-साथ भगवद गीता के अध्यायों को भी पढ़ना चाहते हैं तो यहां से उसका PDF डाउनलोड करें -
Shrimad Bhagwat Geeta PDF। इस 'गर्भ गीता' को ध्यान एवं भक्ति से पढ़ने पर श्री कृष्ण भगवान का अनुग्रह प्राप्त होता है और हमारे अंतःकरण को शांति मिलती है।
जैसे हर व्यक्ति अपने जीवन में निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचना चाहता है उसी प्रकार हमारी यह आत्मा भी मोक्ष और मुक्ति को पाना चाहती है।
गर्भ गीता की शुरुआत में अर्जुन भगवान से यही प्रश्न पूछते हैं कि आत्मा का पुनः पुनः जन्म क्यों होता है? इस जन्म में उसके क्या कर्तव्य होते हैं? किन पाप कर्मों के कारण वह जीवन में अनेक दुखों को पाता है? और किन कर्मों के कारण वह जीवन में अनेक सुखों की प्राप्ति करता है और अंत में वह कौन सा मार्ग है जिसके द्वारा वह मोक्ष और मुक्ति को प्राप्त करता है? अर्थात वह आत्मा कब भगवान में ही लीन हो जाती है और उस आत्मा का जन्म मरण का सारा दुख समाप्त हो जाता है। परंतु जिसे मुक्ति नहीं मिलती उन्हे अलग-अलग योनियों में जन्म लेकर अपने अच्छे व बुरे कर्मों को भोगना पड़ता है।
Garbh Geeta in Hindi | गर्भ गीता पाठ
अच्छी बातें : केवल पढ़ने के लिए
प्रसंग है कि साधु, गृहस्थ, इंजीनियर, अध्यापक, डॉक्टर, वकील, राजनेता, वैज्ञानिक - ये सभी बच्चे के रूप में अपनी माता से ही जन्म लेते हैं और उन्हीं की गोद में संस्कार पाते हैं। अतः यदि माताएं शुद्ध संस्कारी होंगी, तो बच्चे भी शुद्ध संस्कार प्राप्त करते हुए बड़े होंगे।
पत्नी का काम है कि वह विवेकपूर्वक घर-परिवार को चलाये। इस प्रकार परिवार-सुधार के संदर्भ में स्त्रियों का बहुत बड़ा दायित्व है। इसलिए उनका आदर आवश्यक है। आदर तो एक छोटे सदस्य का भी होना चाहिए, फिर गृहिणी, जन्मदात्री और संस्कारदात्री का आदर करना अत्यंत आवश्यक है!
वृद्धों का शरीरबल लुट जाता है। परिवार पर से उनका शासन भी धीरे-धीरे हट जाता है। अतएव अधिकतम वृद्धों के मन में निराशा, रूखापन और असंतोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए वृद्ध धीरे-धीरे थोड़े चिड़चिड़े हो जाते है। उनकी थकी दृष्टि में चारों ओर सूनापन दिखाई देता है। अतः परिवार के स्वजनों का कर्तव्य है कि वे वृद्धों को पूरा सम्मान दे, उनकी सेवा और आदर करें। परिवार वाले वृद्धों को यह अनुभव न होने दें कि उनका उस घर में कुछ नहीं रहा। वृद्धों को ऐसा लगे कि परिवार वाले हमारे अनुगामी हैं।
दूसरी बात, दस दिनों के बाद तुम भी वृद्ध हो जाओगे। जो आज वृद्धों की आवश्यकता है, वही तुम्हें दस दिनों के बाद चाहिए। अपने ही कर्मों के फल-भोग सबको मिलते हैं। अगर तुम वृद्धों की सेवा किये रहोगे, तो तुम्हें भी बुढ़ापे में सेवा मिलेगी। अपने को सेवा की आवश्यकता पड़े या न पड़े, हम वृद्धजनों की सेवा करें तथा उन्हें सम्मान दें।
गृहस्थ तथा मठाधीशों का परम कर्तव्य है, दरवाजे पर आये हुए अतिथि एवं अभ्यागत का यथायोग्य सत्कार करना। यह भारतीय नीतिशास्त्र का नियम है 'अभ्यागत गुरु के समान आदरणीय है।' जहां अभ्यागत का आदर व सम्मान नहीं होता, वे परिवार तथा समाज ऊसर जमीन की तरह उन्नति हीन हो जाते हैं। अतिथिसत्कार से सुकीर्ति और संपत्ति बढ़ती है।
जहां शाम को इकट्ठे होने पर अपने विचारों और बातों को एक दूसरे के सामने नहीं रखते, एक दूसरे के सामने पड़ने पर गम्भीर हो जाते हैं, एक साथ न भोजन करते हैं और न बैठते हैं, समझ लो ऐसे परिवार एवं समाज का विघटन शीघ्र होने वाला है।
परिवार एवं समाज के लोग जब शाम को इक्ट्ठे होते हैं, तब वे यदि एक दूसरे से हंस-हंस कर बातें करते हैं और मालिक को अपने-अपने कामों का लेखा-जोखा देते तथा एक-दूसरे को निश्छल होकर बताते हैं, तब यह निश्चित समझा जाता है कि इस परिवार एवं समाज के लक्षण शुभ हैं।
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कोई व्यापार घाटे में चले तो यह कोई व्यापार नहीं है। व्यापार वही सफल है जिसमें मूलधन तो बना ही रहे, किन्तु मुनाफा में निरंतर वृद्धि होती जाये। अधिकतम लोगों का यह व्यापार घाटे में ही चलता है।
अधेड़ अवस्था में जो कुछ प्रसन्नता शेष है वह सब भी बुढ़ापे में काफूर हो जाती है। इस प्रकार मानव जीवन रूपी व्यापार निरंतर घाटे में चलकर अंत में इसका दिवाला पिट जाता है। बहुत कामना, अहंकार, प्राणियों से द्वेष, बात-बात में क्रोध एवं द्रोह, असहनशीलता, कुछ भी घाटा न उठाकर थोड़े-थोड़े में मुकदमेबाजी आदि करके लोग अपनी जिंदगी को नर्क के जैसा बना लेते है। हंस-हंस कर प्रसन्नता में जीने योग्य जीवन को ईर्ष्या-द्वेष, दुख-सन्ताप में जल-जलकर जीते हैं।
सब भौतिक सुख-सुविधाओं के पा जाने पर भी संसार के अधिकतम लोग निरंतर नरक में जीते हैं। ईर्ष्या-द्वेष, कलह, वैमनस्य, वैर, चिंता, मानसिक उलझन आदि से लोग निरंतर पीड़ित रहते हैं। मनुष्य के अंदर जितना स्वार्थ तीव्र होगा, वह उतना ही राग-द्वेष का शिकार होगा, और ऐसा आदमी कभी शांत नहीं हो सकता। धन चाहे थोड़ा हो, परन्तु मन पवित्र हुए बिना जीवन में सुख नहीं मिलता। मन की पवित्रता के लिए संतों एवं सज्जनों की संगति और मन में शुद्ध और अच्छे विचार चाहिए।
जीवन का आखिरी हिस्सा बुढ़ापा है। कहा जाता है कि अंत अच्छा तो सब अच्छा है, परन्तु दुर्भाग्य है कि अधिकतम लोगों का बुढ़ापा सर्वाधिक दुखपूर्ण हो जाता है।