कबीर मध्ययुगीन संत कवियों में अग्रगण्य हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व अप्रतिम है। कबीर अपने समय के सर्वाधिक प्रखर आलोचक, अक्खड़ उपदेशक और स्पष्ट वक्ता थे। कबीर ऊँचे दर्जे के भक्त, संत, भविष्य दृष्टा कलाकार, युग सृष्टा कवि, समाज धर्म सुधारक, महात्मा एवं उच्च गुणों से सम्पन्न महापुरुष थे। विषम परिस्थितियों में कबीर अवतरित हुए थे। इनकी साहित्यिक और सामाजिक देन चिरस्मरणीय है। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं कुप्रथाओं की कड़ी आलोचना की है।
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Kabir Ke Dohe PDF | कबीर के दोहे
कबीर ने जीवन को अंदर-बाहर से शुद्ध, सरल और परम सात्विक बनाना चाहा। कबीर का समूचा काव्य लोकमंगल की भावना से आते-प्रोत है। कबीर का काव्य उच्च मानवीय मूल्यों का स्रोत है।
कबीर ने जीवन के अनुभवों को कहने के लिए कविता को उन्होंने माध्यम बनाया, साध्य नहीं। इसलिए कवि और कविता की दृष्टि से कबीर का मूल्यांकन मेरी दृष्टि में समीचीन न होगा। पर कबीर ने चूँकि जीवन और जगत के संबंध में अपनी प्रतिक्रियाएँ कविता के ही माध्यम से व्यक्त की हैं इसलिए संत कबीर 'संत कवि कबीर' भी थे और इस दृष्टि से भी उनका मूल्यांकन किया जाता रहा है।
प्रायः यह प्रश्न उठाया जाता रहा है कि कबीर आदि संत ही थे, उनके साथ 'कवि' शब्द क्यों जोड़ा जाता है, जबकि उनकी कविता में कवित्व है ही नहीं। इस संबंध में मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि इन संतों का साध्य इतना उच्च और तत्वपूर्ण है कि उसकी अभिव्यक्ति का साधन अर्थात उनकी कविता-भाषा आदि (साधन) कैसी भी हो उनके साध्य का साधन बनकर दिव्य और अलौकिक बन जाती है और इस प्रकार वे, उनका संत और कवि होना पूर्ण सार्थक और औचित्यपूर्ण लगता है। कविता की काया ही सब कुछ नहीं होती, उसकी आत्मा का भी महत्व होता है। इसमें संदेह नहीं कि कबीर आदि सन्तों की कविता की काया कैसी भी हो उसकी आत्मा एक दिव्य प्रकाशपुंज है, जिसने समूची मानवता को चमत्कृत कर दिया है।
एक ओर उन्होंने मसि और कागज़ को छुआ तक नहीं था और दूसरी ओर वे ज्ञान, अनुभूति और प्रेम के अगाध भंडार थे। उन्होंने जुलाहा-कुल में उत्पन्न होकर बड़े-बड़े पंडितों और काज़ियों की निर्भीकता से खबर ली। इतनी बलिष्ठ रूढ़ियों पर किस साहस और शक्ति से उन्होंने प्रहार किया था, यह देखते ही बनता है।
एक दलित परिवार में उत्पन्न होकर भी उन्होंने इतने बड़े समाज का अध्ययन किया, उसकी दुर्बलताओं पर इतनी सूक्ष्मता से प्रहार किया और सुधार की इतनी रेखाएँ खींचकर उन्होंने जो कल्पित चित्र तैयार किया उस पर किसी भी आदर्श समाज को गर्व हो सकता है। उनकी एक बड़ी विशेषता यह थी कि वे अपनी अनुभूतियों को दूसरों के कल्याण के लिए इतनी ईमानदारी से प्रेषित करते थे कि स्वयं प्रेषण में निमग्न हो जाते थे। इसी ईमानदारी में उनका संत-स्वभाव निहित है।
यों तो उनसे पहले भी बहुत से संत हो चुके थे किन्तु कबीर ही को संत-मत के प्रवर्तन का श्रेय मिलना चाहिए। संत-मत के साथ कबीर का निर्गुण मत भी जुड़ा हुआ है जो धार्मिक क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण उत्क्रांति के रूप में द्रष्टव्य है।
कबीर आदि संतों को निर्गुणी हम केवल इसलिए कहते हैं कि उन्होंने सगुण भक्ति के स्थूल रूप (यथा मूर्तियों और अवतारों की पूजा) को मान्यता नहीं दी।
'संतमत' निरंजन और सूफीमत से भिन्न है, यद्यपि ये दोनों मत संतमत से कुछ-कुछ मिलते-जुलते हैं। तात्विक दृष्टि से निरंजन मत हिन्दू मत है और सूफीमत इस्लामी। ये संतमत से केवल उस सीमा तक भिन्न हैं जिस सीमा तक ये अपने-अपने मूल धर्मों के साथ शांति एवं संतोष से युक्त प्रतीत होते हैं, यद्यपि ये भी निसंदेह यही चाहते हैं कि अनेक जातियों और वर्गों के होते हुए भी लोक-विश्व-भ्रातृत्व के साथ अपने सह-अस्तित्व को सिद्ध करें। यद्यपि वे अपने देव-देवियों और अवतारों को निरंजन ब्रह्म की अपेक्षाकृत लघु अभिव्यक्ति मानकर उनको पूजने की आवश्यकता नहीं मानते, फिर भी वे परम्परागत सामाजिक नियमों का विरोध नहीं करना चाहते। दार्शनिक क्षेत्र में कबीर की विचारधारा से उसका बहुत साम्य है और रामानन्द के साथ भी वह उसी स्थिति में रखा जा सकता है। विशेष अंतर तो उस समय व्यक्त होता है जबकि कबीर के अनुयायी और धर्मदासी तथा राधास्वामी- जैसे अन्य लोग निरंजन का कालपुरुष के रूप में निरूपण करते हैं।
कबीर की वाणी किसी एक प्रान्त या अंचल के आदर की वस्तु नहीं रही है। उसका अध्ययन पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण में, सब ओर हुआ है। मध्यकालीन संतों में कबीर का विशेष स्थान होने के कारण विद्वानों ने उनका अध्ययन विशेषता से किया है। उनकी वाणी में सांस्कृतिक परम्परा का एक ऐसा विकास दृष्टिगोचर होता है जिसमें अभारतीय संस्कृति का इतना मधुर पुट है कि उसकी अभारतीयता प्रतीत नहीं होती।
कुछ लोगों का तो अब तक यह विश्वास रहा है कि कबीर अशिक्षित थे और इस कारण उनके दार्शनिक विचार निराधार, अपरिपक्व एवं असंबद्ध थे, किन्तु यह उनका भ्रममात्र है। कबीर पंथ का अपना मौलिक एवं दृढ़ धरातल है और उसमें एक दार्शनिक भूमिका है जिसमें मौलिकता के पुट ने प्राचीनता को मार्जित एवं व्यवस्थित करने की चेष्टा की है। कबीर ऊंचे दर्जे के भक्त थे। उनकी भक्ति में ज्ञान और योग का मधुर मिलन हुआ है। जहां-जहां भक्ति और ज्ञान का मधुर मिलन देखना हो, वहां-वहां उनकी रहस्य-साधना भी देखने योग्य है। यों तो योग ने भी रहस्य की भूमिका पर अपना रूप संभाला है किन्तु उसमें वह माधुर्य नहीं आ पाया जो उनकी अद्वैतिक रहस्योक्तियों में आया है।
कबीर ने जो धर्म स्वीकार किया है वह सरल, सहज और व्यापक है। उन्होंने परम्परागत धर्म की विकृत रूढ़ियों को उच्छित्र करके वास्तविक धर्म की तात्विक प्रकृति को व्यक्त किया है। इसी के आधार पर तुकाराम ने कबीर की गणना उन चार महापुरुषों में की थी जो अनुगमनीय हैं।
जिस काल में कबीरदास ने जन्म लिया, उस काल की राजनैतिक सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों तथा विचारधाराओं का प्रभाव कबीर के जीवन, व्यक्तित्व तथा विचारों पर पड़ना अवश्यंभावी था। हम यह कह सकते हैं कि उस काल की परिस्थितियों ने ही कबीर के कवि, सुधारक, क्रान्तिदर्शी और उनके मत को जन्म दिया।
दोस्तों, Kabir Ke Dohe PDF in Hindi संत कबीर दास की अनमोल निधि है। Kabir Ke Dohe में कहा गया है लोग राग-द्वेष एवं कामादि विषय-वासनाओं की अग्नि में प्रतिदिन जलते हैं, उनके पांव जलन में ही होते हैं, अर्थात, वे रोज-रोज राग-द्वेष एवं विषयों की आसक्ति रूपी जलन में ही स्थित रहते हैं, विषय-वासनाओं में ही वे अपना मन लगाते हैं और वैसे ही कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं। लोग आसक्तिवश विषय-वासनाओं में गड़ते जाते हैं या गाड़े जाते हैं, परन्तु उससे कोई ऊबर नहीं पाता। ऐसी स्थिति में कोई संत-गुरु उन्हें अपना सत्योपदेश रुपी सहारा दे तो वे उस पर ध्यान नहीं देते, उलटे उनका उपहास करते हैं। कहो भला, ऐसे लोगों का किस प्रकार उद्धार होगा?